Vision de la Forme universelle
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(Ⅱ)

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11. 1  
अर्जुन ने कहा - -
उपदेश यह अति गुप्त जो तुमने कहा करके दया ।
अध्यात्म विषयक ज्ञान से सब मोह मेरा मिट गया ॥ ११ । १ ॥
- (Arjuna.:) « Le mystère sublime de l’Ame suprême, que tu viens de m’exposer pour mon salut, a éloigné de moi l’erreur. (Ⅱ)
11. 2  
विस्तार से सब सुन लिया उत्पत्ति लय का तत्त्व है ।
मैंने सुना सब आपका अक्षय अनन्त महत्व है ॥ ११ । २ ॥
- Car j’ai entendu longuement la naissance et la destruction des êtres, ô Dieu aux yeux de lotus, et ta magnanimité impérissable. (Ⅱ)
11. 3  
हैं आप वैसे आपने जैसा कहा है हे प्रभो ।
मैं देखना हूं चाहता ऐश्वर्यमय उस रूप को ॥ ११ । ३ ॥
- Cependant, Seigneur, je voudrais te voir dans ta forme souve-raine, tel que tu t’es dépeint toi-même ; (Ⅱ)
11. 4  
समझें प्रभो यदि आप, मैं वह देख सकता हूँ सभी ।
तो वह मुझे योगेश! अव्यय रूप दिखलादो अभी ॥ ११ । ४ ॥
- Si tu penses que cette vision me soit possible, ô Seigneur de la sainte Union, alors montre-toi à ma vue dans ton éternité. » (Ⅱ)
11. 5  
श्रीभगवान् ने कहा - -
हे पार्थ! देखो दिव्य अनुपम विविध वर्णाकार के ।
शत- शत सहस्रों रूप मेरे भिन्न भिन्न प्रकार के ॥ ११ । ५ ॥
- (Le Bienheureux:) « Voici, fils de Prithâ, mes formes cent et mille fois variées, cé-lestes, diverses de couleur et d’aspect. (Ⅱ)
11. 6  
सब देख भारत! रुद्र वसु अश्विनि मरुत आदित्य भी ।
आश्चर्य देख अनेक अब पहले न देखे जो कभी ॥ ११ । ६ ॥
- Voici les Adityas, les Vasus, les Rudras, les deux Açwins et les Maruts ; voici, fils de Bhârata, de nombreuses merveilles que nul en-core n’a contemplées. (Ⅱ)
11. 7  
इस देह में एकत्र सारा जग चराचर देखले ।
जो और चाहे देखना इसमें बराबर देख ले ॥ ११ । ७ ॥
- Voici dans son Unité tout l’Univers avec les choses mobiles et immobiles : le voici, compris dans mon corps avec tout ce que tu dési-res apercevoir. (Ⅱ)
11. 8  
मुझको न अपनी आँख से तुम देख पाओगे कभी ।
मैं दिव्य देता दृष्टि, देखो योग का वैभव सभी ॥ ११ । ८ ॥
- Mais, puisque tu ne peux me voir avec les yeux de ton corps, je te donne un oeil céleste : contemple donc en moi l’Union souveraine. » (Ⅱ)
11. 9  
संजय ने कहा- -
जब पार्थ से श्रीकृष्ण ने इस भाँति हे राजन्! कहा ।
तब ही दिया ऐश्वर्य- युक्त स्वरूप का दर्शन महा ॥ ११ । ९ ॥
- (Sanjaya.:) « Lorsque Hari, Seigneur de la sainte Union, eut ainsi parlé, il fit voir au fils de Prithâ sa figure auguste et suprême, (Ⅱ)
11. 10  
मुख नयन थे उसमें अनेकों ही अनोखा रूप था ।
पहिने अनेकों दिव्य गहने शस्त्र- साज अनूप था ॥ ११ । १० ॥
- Portant beaucoup d’yeux et de visages, beaucoup d’aspects ad-mirables, beaucoup d’ornements divins, tenant levées beaucoup d’armes divines ; (Ⅱ)
11. 11  
सीमा- रहित अद्भुत महा वह विश्वतोमुख रूप था ।
धारण किये अति दिव्य माला वस्त्र गन्ध अनूप था । ११ । ११ ॥
- Portant des guirlandes et des vêtements divins, parfumée de cé-lestes essences, merveilleuse en toutes choses, resplendissante, infinie, la face tournée dans toutes les directions. (Ⅱ)
11. 12  
नभ में सहस रवि मिल उदय हों प्रभापुञ्ज महान् हो ।
तब उस महात्मा कान्ति के कुछ कुछ प्रकाश समान हो ॥ ११ । १२ ॥
- Si dans le ciel se levait tout à coup la Lumière de mille soleils, elle serait comparable à la splendeur de ce Dieu magnanime. (Ⅱ)
11. 13  
उस देवदेव शरीर में देखा धनंजय ने तभी ।
बांटा विविध विध से जगत् एकत्र उसमें है सभी ॥ ११ । १३ ॥
- Là donc, dans le corps du Dieu des dieux, le fils de Pându vit l’Univers entier et Unique dans sa multiplicité. (Ⅱ)
11. 14  
रोमांच तन में हो उठा आश्चर्य से मानो जगे ।
तब यों धनंजय सिर झुका, कर जोड़ कर कहने लगे ॥ ११ । १४ ॥
- Alors, plein de stupeur, les cheveux hérissés, le héros baissa la tête et, joignant les mains en haut, parla ainsi à la Divinité : (Ⅱ)
11. 15  
अर्जुन ने कहा - -
भगवन्! तुम्हारी देह में मैं देखता सुर- गण सभी ।
मैं देखता हूँ देव! इसमें प्राणियों का संघ भी ॥
शुभ कमल आसन पर इसी में ब्रह्मदेव विराजते ।
इसमें महेश्वर और ऋषिगण, दिव्य पन्नग साजते ॥ ११ । १५ ॥
- (Arjuna.:) « O Dieu, je vois en ton corps tous les dieux et les troupes des êtres vivants ; et le Seigneur Brahmâ assis sur le lotus ; et tous les Rishis et les célestes serpents. (Ⅱ)
11. 16  
बहु बाहु इसमें हैं अनेकों ही उदरमय रूप है ।
मुख और आँखें हैं अनेकों, हरि- स्वरूप अनूप है ॥
दिखता न विश्वेश्वर तुम्हारा आदि मध्य न अन्त है ॥
मैं देखता सब ओर छाया विश्वरूप अनन्त है ॥ ११ । १६ ॥
- Je te vois avec des bras, des poitrines, des visages et des yeux sans nombre, avec une forme absolument infinie. Sans fin, sans mi-lieu, sans commencement, ainsi je te vois, Seigneur universel, forme universelle. (Ⅱ)
11. 17  
पहिने मुकुट, मञ्जुल गदा, शुभ चक्र धरते आप हैं ।
हो तेज- निधि, सारी दिशा दैदीप्त करते आप हैं ॥
तुम दुर्निरीक्षय महान् अपरम्पार हे भगवान् हो ॥
सब ओर दिखते दीप्त अग्नि दिनेश सम द्युतिवान हो ॥ ११ । १७ ॥
- Tu portes la tiare, la massue et le disque, montagne de lumière de tous côtés resplendissante ; je puis à peine te regarder tout entier : car tu brilles comme le feu et comme le soleil dans ton immensité. (Ⅱ)
11. 18  
तुम जानने के योग्य अक्षरब्रह्म अपरम्पार हो ।
जगदीश! सारे विश्व मण्डल के तुम्हीं आधार हो ॥
अव्यय सनातन धर्म के रक्षक सदैव महान् हो ॥
मेरी समझ से तुम सनातन पुरुष हे भगवान् हो ॥ ११ । १८ ॥
- Tu es l’Indivisible, le suprême Intelligible. Tu es le trésor souve-rain de cet Univers ; tu es impérissable ; c’est toi qui maintiens la Loi immuable ; je vois que tu es le principe masculin éternel. (Ⅱ)
11. 19  
नहिं आदि मध्य न अन्त और अनन्त बल- भण्डार है ।
शशि- सूर्य रूपी नेत्र और अपार भुज- विस्तार है ॥
प्रज्वलित अग्नि प्रचण्ड मुख में देखता मैं धर रहे ॥
संसार सारा तप्त अपने तेज से हरि कर रहे ॥ ११ । १९ ॥
- Sans commencement, sans milieu, sans fin ; doué d’une puis-sance infinie ; tes bras n’ont pas de limite, tes regards sont comme la Lune et le Soleil ; ta bouche a la splendeur du feu sacré. (Ⅱ)
11. 20  
नभ भूमि अन्तर सब दिशा इस रूप से तुम व्यापते ।
यह उग्र अद्भुत रूप लखि त्रैलोक्य थर- थर काँपते ॥ ११ । २० ॥
- Par ta chaleur tu échauffes cet Univers. Car tu remplis à toi seul tout l’espace entre le ciel et la terre et tu touches à toutes les régions ; à la vue de ta forme surnaturelle et terrible, les trois mondes, ô Dieu magnanime, sont ébranlés. (Ⅱ)
11. 21  
ये आप ही में देव- वृन्द प्रवेश करते जा रहे ।
डरते हुए कर जोड़ जय- जय देव शब्द सुना रहे ॥
सब सिद्ध- संघ महर्षिगण भी स्वस्ति कहते आ रहे ॥
पढ़ कर विविध विध स्तोत्र स्वामिन् आपके गुण गा रहे ॥ ११ । २१ ॥
- Voici les troupes des êtres divins qui vont vers toi ; quelques-uns joignent de crainte leurs mains en haut et prient à voix basse. « Swas-ti ! » répètent les assemblées des Maharshis et des Saints, et ils te cé-lèbrent dans de sublimes cantiques. (Ⅱ)
11. 22  
सब रुद्रगण आदित्य वसु हैं साध्यगण सारे खड़े ।
सब पितर विश्वेदेव अश्विनि और सिद्ध बड़े बड़े ॥
गन्धर्वगण राक्षस मरुत समुदाय एवं यक्ष भी ॥
मन में चकित होकर हरे! वे देखते तुमको सभी ॥ ११ । २२ ॥
- Les Rudras, les Adityas, les Vasus et les Sâdyas, les Viçwas, les deux Açwins, les Maruts et les Ushmapas, les troupes des Gandhar-vas, des Yaxas, des Asuras et des Siddhas te contemplent et demeu-rent tout confondus. (Ⅱ)
11. 23  
बहु नेत्र मुखवाला महाबाहो! स्वरूप अपार है ।
हाथों तथा पैरों व जंघा का बड़ा विस्तार है ॥
बहु उदर इसमें और बहु विकराल डाढ़ें हैं महा ॥
भयभीत इसको देख सब हैं भय मुझे भी हो रहा ॥ ११ । २३ ॥
- Ta grande forme, où sont tant de bouches et d’yeux, de bras, de jambes et de pieds, tant de poitrines et de dents redoutables : les mon-des en la voyant sont épouvantés ; moi aussi. (Ⅱ)
11. 24  
यह गगनचुंबी जगमगाता हरि! अनेकों रंग का ।
आँखें बड़ी बलती, खुला मुख भी अनोखे ढ़ंग का ॥
यह देख ऐसा रूप मैं मन में हरे! घबरा रहा ॥
नहिं धैर्य धर पाता, न भगवन्! शान्ति भी मैं पा रहा ॥ ११ । २४ ॥
- Car en te voyant toucher la nue, et resplendir de mille couleurs ; en voyant ta bouche ouverte et tes grands yeux étincelants, mon âme est ébranlée, je ne puis retrouver mon assiette ni mon calme, ô Vish-nu. (Ⅱ)
11. 25  
डाढ़ें भयंकर देख पड़ता मुख महाविकराल है ।
मानो धधकती यह प्रलय- पावक प्रचण्ड विशाल है ॥
सुख है न ऐसे देख मुख, भूला दिशायें भी सभी ॥
देवेश! जग- आधार! हे भगवन्! करो करुणा अभी ॥ ११ । २५ ॥
- Quand j’aperçois ta face armée de dents menaçantes et pareille au feu qui doit embraser le monde, je ne vois plus rien autour de moi et ma joie est partie. Sois-moi propice, Maître des dieux, demeure du monde. (Ⅱ)
11. 26  
धृतराष्ट्र- सुत सब साथ उनके ये नृपति- समुदाय भी ।
श्री भीष्म द्रोणाचार्य कर्ण प्रधान अपने भट सभी ॥ ११ । २६ ॥
- Tous ces fils de Dhritarâshtra avec les troupes des maîtres de la terre, Bhîshma, Drôna, et ce fils du Cocher avec les chefs de nos sol-dats, (Ⅱ)
11. 27  
विकराल डाड़ों युत भयानक आपके मुख में हरे ।
अतिवेग से सब दौड़ते जाते धड़ाधड़ हैं भरे ॥
ये दिख रहे कुछ दाँत में लटके हुए रण- शूर हैं ॥
इस डाढ़ में पिस कर अभी जिनके हुए शिर चूर हैं ॥ ११ । २७ ॥
- Courent se précipiter dans ta bouche formidable. Quelques-uns, la tête brisée, demeurent suspendus entre tes dents. (Ⅱ)
11. 28  
जिस भाँति बहु सरिता- प्रवाह समुद्र प्रति जाते बहे ।
ऐसे तुम्हारे ज्वाल- मुख में वेग से नर जा रहे ॥ ११ । २८ ॥
- Comme des torrents sans nombre qui courent droit à l’Océan, ces héros sont emportés vers ton visage flamboyant. (Ⅱ)
11. 29  
जिस भाँति जलती ज्वाल में जाते पतंगे वेग से ।
यों मृत्यु हित ये नर, मुखों में आपके जाते बसे ॥ ११ । २९ ॥
- Comme vers une flamme allumée l’insecte vole à la mort avec une vitesse croissante : ainsi les vivants courent vite se perdre dans ta bouche. (Ⅱ)
11. 30  
सब ओर से इस ज्वालमय मुख में नरों को धर रहे ।
देवेश! रसना चाटते भक्षण सभी का कर रहे ॥
विष्णो! प्रभाएँ आपकी अति उग्र जग में छा रहीं ॥
निज तेज से संसार सारा ही सुरेश तपा रही ॥ ११ । ३० ॥
- De toutes parts ta langue se repaît de générations entières, et ton gosier embrasé les engloutit. Tu remplis tout le monde de ta lumière, ô Vishnu, et tu l’échauffes de tes rayons. (Ⅱ)
11. 31  
तुम उग्र अद्भुत रूपधारी कौन हो बतलाइये ।
हे देवदेव ! नमामि देव! प्रसन्न अब हो जाइये ॥
तुम कौन आदि स्वरूप हो, यह जानना मैं चाहता ॥
कुछ भी न मुझको आपकी इस दिव्य करनी का पता ॥ ११ । ३१ ॥
- Raconte-moi qui tu es, Dieu redoutable. Louange à toi, Dieu su-prême. Sois propice. Je désire te connaître, essence primitive ; car je ne prévois pas la marche de ton action. » (Ⅱ)
11. 32  
श्रीभगवान् ने कहा - -
मैं काल हूँ सब लोक- नाशक उग्र अपने को किये ।
आया यहाँ संसार का संहार करने के लिये ॥
तू हो न हो तो भी धनंजय! देख बिन तेरे लड़े ॥
ये नष्ट होंगे वीरवर योधा बड़े सब जो खड़े ॥ ११ । ३२ ॥
- (Le Bienheureux:) « Je suis Hâla, le Temps destructeur du monde ; vieux, je suis venu ici pour détruire les générations. Excepté toi, il ne restera pas un seul des soldats que renferment ces deux armées. (Ⅱ)
11. 33  
अतएव उठ रिपुदल- विजय कर, प्राप्त कर सम्मान को ।
फिर भोग इस धन- धान्य से परिपूर्ण राज्य महान् को ॥
हे पार्थ! मैंने वीर ये सब मार पहिले ही दिये ॥
आगे बढ़ो तुम युद्ध में बस नाम करने के लिये ॥ ११ । ३३ ॥
- Ainsi donc, lève-toi, cherche la gloire ; triomphe des ennemis et acquiers un vaste empire. J’ai déjà assuré leur perte : sois-en seule-ment l’instrument ; (Ⅱ)
11. 34  
ये भीष्म द्रोण तथा जयद्रथ कर्ण योद्धा और भी ।
जो वीरवर हैं मार पहिले ही दिये मैंने सभी ॥
अब मार इन मारे हुओं को, वीरवर! व्याकुल न हो ॥
कर युद्ध रण में शत्रुओं को पार्थ! जीतेगा अहो ॥ ११ । ३४ ॥
- J’ai ôté la vie à Drôna, Bhîshma, Jayadratha, Karna, et à d’autres guerriers : tue-les donc ; ne te trouble pas ; combats et tu vaincras tes rivaux. » (Ⅱ)
11. 35  
संजय ने कहा - -
तब मुकुटधारी पार्थ सुन केशव- कथन इस रीति से ।
अपने उभय कर जोड़ कर कँपते हुए भयभीत से ॥
नमते हुए, गद्गद् गले से, और भी डरते हुए ॥
श्रीकृष्ण से बोले वचन, यों वन्दना करते हुए ॥ । ११ । ३५ ॥
- (Sanjaya.:) « Quand il eut entendu ces paroles du Dieu chevelu, le guerrier qui porte la tiare joignit les mains et, en tremblant, adora ; puis, rempli de terreur, il s’incline et dit, en balbutiant, à Krishna : (Ⅱ)
11. 36  
अर्जुन ने कहा - -
होता जगत् अनुरक्त हर्षित आपका कीर्तन किये ।
सब भागते राक्षस दिशाओं में तुम्हारा भय लिये ॥
नमता तुम्हें सब सिद्ध- संघ सुरेश ! बारम्बार है ॥
हे हृषीकेश! समस्त ये उनका उचित व्यवहार है ॥ ११ । ३६ ॥
- (Arjuna.:) « Oui ! à ton nom, ô Dieu chevelu, le monde se réjouit et suit ta Loi, les Raxas effrayés fuient de toute part, les troupes des Siddhas sont en adoration. (Ⅱ)
11. 37  
तुम ब्रह्म के भी आदिकारण और उनसे श्रेष्ठ हो ।
फिर हे महात्मन! आपकी यों वन्दना कैसे न हो ॥
संसार के आधार हो, हे देवदेव! अनन्त हो ॥
तुम सत्, असत् इनसे परे अक्षर तुम्हीं भगवन्त हो ॥ ११ । ३७ ॥
- Et pourquoi donc, ô magnanime, ne t’adorerait-on pas, toi plus vé-nérable que Brahmâ, toi le Premier Créateur, l’Infini, le Seigneur des dieux, la Demeure du monde, la Source indivisible de l’être et du non-être ? (Ⅱ)
11. 38  
भगवन्! पुरातन पुरुष हो तुम विश्व के आधार हो ।
हो आदिदेव तथैव उत्तम धाम अपरम्पार हो ॥
ज्ञाता तुम्हीं हो जानने के योग्य भी भगवन्त् हो ॥
संसार में व्यापे हुए हो देवदेव! अनन्त हो ॥ ११ । ३८ ॥
- Tu es la Divinité première, l’antique Principe masculin, le Trésor souverain de cet Univers. Tu es le Savant et l’Objet de la Science, et la Demeure Suprême. Par toi s’est déployé cet Univers, ô toi dont la forme est infinie ! (Ⅱ)
11. 39  
तुम वायु यम पावक वरुण एवं तुम्हीं राकेश हो ।
ब्रह्मा तथा उनके पिता भी आप ही अखिलेश हो ॥
हे देवदेव! प्रणाम देव! प्रणाम सहसों बार हो ॥
फिर फिर प्रणाम! प्रणाम! नाथ, प्रणाम! बारम्बार हो ॥ ११ । ३९ ॥
- Tu es Vâyu, Yama, Agni, Varuna, et la Lune, et le Prajâpati et le grand Aïeul. Gloire, gloire à toi mille fois ! et derechef encore gloire, gloire à toi ! (Ⅱ)
11. 40  
सानन्द सन्मुख और पीछे से प्रणाम सुरेश! हो ।
हरि बार- बार प्रणाम चारों ओर से सर्वेश! हो ॥
है वीर्य शौर्य अनन्त, बलधारी अतुल बलवन्त हो ॥
व्यापे हुए सबमें इसी से ' सर्व' हे भगवन्त! हो ॥ ११ । ४० ॥
- Gloire en ta présence et derrière toi, en tous lieux, ô Universel ! Doué d’une force infinie, d’une puissance infinie, tu embrasses l’Univers, et ainsi tu es Universel. (Ⅱ)
11. 41  
तुमको समझ अपना सखा जाने बिना महिमा महा ।
यादव! सखा! हे कृष्ण! प्यार प्रमाद या हठ से कहा ॥ ११ । ४१ ॥
- Si, te croyant mon ami, je t’ai appelé vivement en ces termes : « Viens, Krishna ; ici, fils de Yadu ; allons, mon ami ; » si j’ai mé-connu ta Majesté, soit par ma témérité, soit par mon zèle ; (Ⅱ)
11. 42  
अच्युत! हँसाने के लिये आहार और विहार में ।
सोते अकेले बैठते सबमें किसी व्यवहार में ॥ ११ । ४२ ॥
- Si je t’ai offensé au jeu, ou à la promenade, ou couché, ou assis, ou à la table, soit seul, soit devant ces guerriers : Dieu auguste et infini pardonne-le-moi. (Ⅱ)
11. 42  
सबकी क्षमा मैं मांगता जो कुछ हुआ अपराध हो ॥ ।
संसार में तुम अतुल अपरम्पार और अगाध हो ॥ ॥ ११ । ४२ ॥
11. 43  
सारे चराचर के पिता हैं आप जग- आधार हैं ।
हैं आप गुरुओं के गुरु अति पूज्य अपरम्पार हैं ॥
त्रैलोक्य में तुमसा प्रभो! कोई कहीं भी है नहीं ॥
अनुपम अतुल्य प्रभाव बढ़कर कौन फिर होगा कहीं ॥ ११ । ४३ ॥
- Tu es le Père des choses mobiles et immobiles ; tu es plus véné-rable qu’un maître spirituel. Nul n’est égal à toi ; qui donc, dans les trois mondes, pourrait te surpasser, ô toi dont la Majesté n’a point de bornes ? (Ⅱ)
11. 44  
इस हेतु वन्दन- योग्य ईश! शरीर चरणों में किये ।
मैं आपको करता प्रणाम प्रसन्न करने के लिये ॥
ज्यों तात सुत के, प्रिय प्रिया के, मित्र सहचर अर्थ हैं ॥
अपराध मेरा आप त्यों ही सहन हेतु समर्थ हैं ॥ । ११ । ४४ ॥
- C’est pourquoi, m’inclinant et me prosternant, j’implore ta grâce, Seigneur digne de louanges : sois-moi propice, comme un père l’est à son fils, un ami à son ami, un bien-aimé à sa bien-aimée. (Ⅱ)
11. 45  
यह रूप भगवन्! देखकर, पहले न जो देखा कभी ।
हर्षित हुआ मैं किन्तु भय से है विकल भी मन अभी ॥
देवेश! विश्वाधार! देव! प्रसन्न अब हो जाइये ॥
हे नाथ! पहला रूप ही अपना मुझे दिखलाइये ॥ ११ । ४५ ॥
- Depuis que j’ai vu la merveille que nul n’avait pu voir, la joie remplit mon coeur, mais la crainte l’agite. Montre-moi ta première forme, ô Dieu ! Sois-moi propice, Seigneur des dieux, Demeure du monde ! (Ⅱ)
11. 46  
मैं चाहता हूँ देखना, तुमको मुकुट धारण किये ।
हे सहसबाहो! शुभ करों में चक्र और गदा लिये ॥
हे विश्वमूर्ते! फिर मुझे वह सौम्य दर्शन दीजिये ॥
वह ही चतुर्भुज रूप हे देवेश! अपना कीजिये ॥ ११ । ४६ ॥
- Je voudrais te revoir avec la tiare, la massue et le disque ; re-prends ta figure à quatre bras, ô toi qui as des bras et des formes sans nombre. » (Ⅱ)
11. 47  
श्रीभगवान् ने कहा - -
हे पार्थ! परम प्रसन्न हो तुझ पर अनुग्रह- भाव से ।
मैने दिखाया विश्वरूप महान योग- प्रभाव से ॥
यह परम तेजोमय विराट् अनंत आदि अनूप है ॥
तेरे सिवा देखा किसी ने भी नहीं यह रूप है ॥ ११ । ४७ ॥
- (Le Bienheureux:) « C’est par ma grâce, Arjuna, et par la force de mon Union mys-tique que tu as vu ma forme suprême, resplendissante, universelle, infinie, primordiale, que nul autre avant toi n’avait vue. (Ⅱ)
11. 48  
हे कुरुप्रवीर! न वेद से, स्वाध्याय यज्ञ न दान से ।
दिखता नहीं मैं उग्र तप या क्रिया कर्म- विधान से ॥
मेरा विराट् स्वरूप इस नर- लोक में अर्जुन! कहीं ॥
अतिरिक्त तेरे और कोई देख सकता है नहीं ॥ ११ । ४८ ॥
- Ni le Vêda, ni le Sacrifice, ni la Lecture, ni les Libéralités, ni les Cérémonies, ni les rudes Pénitences ne sauraient me rendre visible à quelque autre sur terre qu’à toi seul, fils de Kuru. (Ⅱ)
11. 49  
यह घोर- रूप निहार कर मत मूढ़ और अधीर हो ।
फिर रूप पहला देख, भय तज तुष्ट मन में वीर हो ॥ ११ । ४९ ॥
- N’aie ni peur, ni trouble, pour avoir vu ma forme épouvantable : libre de crainte, la joie dans le coeur, tu vas revoir ma première fi-gure. » (Ⅱ)


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